प्रस्तुति:- #शैलेन्द्रसिंहशैली
सवाल का मूलतत्त्व
इस प्रश्न में “औचित्य” शब्द है. अधिकतर छात्र इस प्रश्न को पढ़ने के बाद सोचेंगे कि उन्हें अपने उत्तर में विधान परिषद् के पक्ष में लिखना है. या कोई-कोई छात्र सोचेंगे कि विपक्ष में लिखना है. मगर “औचित्य” शब्द जोड़कर परीक्षक आपसे विधान परिषद् के अस्तित्व के पक्ष और विपक्ष दोनों के विषय में जानना चाहता है.
कोशिश यह करें कि शुरू वाले paragraph में आप इसके पक्ष में तर्क दें, उसके बाद विपक्ष में. क्योंकि शुरुआत positive चीज से हो तो परीक्षक पर impression अच्छा जमता है. वैसे भी साहित्य जगत में negative चीजों को बाद में लिखा जाता है. यह एक परम्परा है.
चूँकि विधान सभा के पक्ष में ज्यादा कुछ कहा नहीं जा सकता, इसलिए एक-दो लाइन भी चलेगा.
उत्तर
विधान परिषद् की उपयोगिता पर अनेक विद्वानों ने अपनी शंका व्यक्त की है. वास्तव में, इसकी उपयोगिता संदिग्ध है. यही कारण है कि भारत के कुछ ही राज्यों में विधान परिषद् है. फिर भी, इसके पक्ष में अनेक विद्वान् हैं. ऐसे विद्वानों ने विधान परिषद् के पक्ष में अनेक तर्क प्रस्तुत किये हैं.
विधान परिषद् द्वारा अल्पसंख्यकों, विभिन्न पेशों तथा आर्थिक समूहों और वर्गों को प्रतिनिधित्व दिया जाता है. विधान परिषद् में कुछ ऐसे वयोवृद्ध, अनुभवी एवं कुशल व्यक्तियों को सदस्यता दी जा सकती है जिनकी सेवा राज्य के लिए आवश्यक एवं अपेक्षित हो. किसी विषय पर जब विधान सभा में चर्चा होती है, उसी विषय पर विधान परिषद् में भी चर्चा होटी है. अधिक से अधिक चर्चा का लाभ यह हो सकता है कि सम्बंधित विषय पर नए-नए पहलू सामने आ सके हैं जो किसी कारण से विधान सभा में उभर नहीं पाए.
दूसरी तरफ कुछ विद्वानों का मानना है कि भारतीय राज्यों में विधान परिषद् का कोई वास्तविक उपयोग नहीं है, प्रत्युत् विधान परिषद् के सदस्यों को मंत्रिपरिषद में शामिल कर जनतंत्रीय सिद्धांतों का उल्लंघन किया जाता है. संविधान के निर्माताओं को भी विधान परिषद् की उपयोगिता सन्देहास्पद प्रतीत हुई थी, इसी कारण उन्होंने विधान परिषद् को ख़त्म करने का प्रावधान संविधान में रख दिया था.
विधान परिषद् अत्यंत ही निर्बल एवं शक्तिहीन सदन है. विधान सभा द्वारा पारित विधेयक विधान परिषद् द्वारा अस्वीकृत कर दिया जाता है या परिषद् में भेजे जाने की तारीख से तीन महीने से अधिक का समय बीत जाता है या परिषद् द्वारा ऐसे संशोधन के साथ पारित होता है जो विधान सभा को मान्य नहीं है, तो विधान सभा की उसी अधिवेशन की अगली बैठक में वह विधेयक पुनः पारित होने पर विधान परिषद् में भेजा जाता है. यदि इसपर भी परिषद् उसे अस्वीकृत करती है या उन संशोधनों के साथ पारित करती है जो विधान सभा को मान्य नहीं है या एक मास तक विलम्ब करती है, तो ऐसी अवास्था में वह विधेयक जिस रूप में विधान सभा द्वारा दूसरी बार पारित हुआ था उसी रूप में दोनों सदनों द्वारा पारित समझा जाता है. इस प्रकार विधान परिषद् विधिनिर्माण में गति को अवरुद्ध करती है. राज्य विधानमंडल में केन्द्रीय संसद की तरह दोनों सदनों में मतभेद होने की स्थिति में संयुक्त बैठक की व्यवस्था नहीं की गई है.
वित्तीय विषयों में विधान परिषद् की स्थिति वही है जो राज्य सभा की है. धन विधेयक विधान परिषद् में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता. वह विधान सभा में प्रस्तुत किया जाता है और वहाँ से पारित होने पर विधान परिषद् के पास भेजा जाता है. विधान परिषद् 14 दिनों के अन्दर अपना सुझाव भेज देती है और यदि वह ऐसा नहीं करेगी तो धन विधेयक दोनों सदनों द्वारा पारित समझा जाता है.
प्रशासन के क्षेत्र में भी विधान परिषद् पूर्णतः शक्तिहीन और निर्बल सदन है. वैसे तो विधान परिषद् के सदस्य भी मंत्री-मुख्यमंत्री बन सकते हैं परन्तु मंत्रिपरिषद विधान परिषद् के प्रति उत्तरदायी न हो कर विधान सभा के प्रति उत्तरदायी होती है और विधान सभा ही मंत्रिपरिषद को अपदस्थ कर सकती है. विधान परिषद् के सदस्यों को राष्ट्रपति के निर्वाचन में भी भाग लेने का अधिकार प्राप्त नहीं है, जबकि विधान सभा के निर्वाचित सदस्यों को राष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग लेने का अधिकार प्राप्त है.
निष्कर्ष
इस प्रकार इस चर्चा में हम पाते हैं कि विधान परिषद् मात्र एक आलंकारिक सदन है जिसका विधायी प्रक्रिया में विशेष महत्त्व नहीं है. यही कारण है कि अधिकांश राज्यों में इसे समाप्त किया जा चुका है. हम कह सकते हैं कि वर्तमान परिस्थितियों में भारत के संवैधानिक ढाँचे में विधान परिषद् के अस्तित्व का अधिक औचित्य नहीं है.