Sunday, December 22, 2024
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यह हादसा नहीं, हत्या है: एक तरह का सामूहिक नरसंहार है!

प्रस्तुति: #शैलेन्द्रसिंहशैली

यह हादसा नहीं हत्या है, एक तरह का सामूहिक नरसंहार है और इसके लिए कुदरत नहीं सरकार जिम्मेदार है। यह लापरवाही की पराकाष्ठा है। एक साथ तीन-तीन ट्रेनें एक दूसरे से टकरा रही हैं। यह कोई सामान्य घटना नहीं है। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में जब से जवाबदेह सरकारें काम कर रही हैं शायद ही देश में इस तरह की कोई घटना घटी हो। तीन सौ लोग एक साथ काल कवलित हो जा रहे हैं। यह आंकड़ा तो सरकारी है।

संख्या अगर इसकी दुगुनी हो तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए। क्योंकि रेल प्रशासन केवल रिजर्वेशन वाले यात्रियों को ही अपने आंकड़े में शामिल करता है। बाकी जनरल बोगी को वह कैटिल क्लास का भी दर्जा नहीं देता। लावारिस पड़ी यात्रियों की लाशें कितनी उनके घरों तक पहुंचेंगी और कितनों के परिजन उनका आखिरी बार मुंह देख सकेंगे यह अभी भी एक रहस्य का विषय बना हुआ है। वरना उनके बड़े हिस्सा का बगैर परिजनों की मौजूदगी के श्माशान घाट पहुंच जाना लगभग तय है।

बहरहाल यहां सवाल है सरकार और उसकी लापरवाही का। जनाब रेलमंत्री का एक वीडियो सोशल मीडिया पर सुबह से घूम रहा है। जिसमें वह कवच जैसे किसी यंत्र के बारे में बाकायदा स्क्रीन पर अफसरों की एक टीम को बैठा कर बता रहे हैं। उसमें एक ट्रेन के इंजन के भीतर वह खुद बैठे भी दिख रहे हैं और किस तरह से किसी दुर्घटना की आशंका से पहले ही ट्रेनें उसका आभाष कर लेंगी और अपने स्थान पर ही खड़ी हो जाएंगी। इसका सचित्र वर्णन कर रहे हैं।

इसमें दावा तो यहां तक किया गया है कि यह यूरोप से भी आगे की प्रणाली है।अब कोई पूछ सकता है कि कवच प्रणाली का क्या हुआ वैष्णव जी? अगर आप में थोड़ी भी नैतिकता और शर्म बची होती या फिर लोकतंत्र के प्रति बुनियादी जवाबदेही होती तो मौके पर जाने से पहले आपको अपना इस्तीफा राष्ट्रपति को भेज देना चाहिए था। और यह कोई नई बात नहीं होती। लोहिया ने अपने मुख्यमंत्री से जेल में रहते चिट्ठी लिखकर इस्तीफा ले लिया था जब केरल में उसकी सरकार के दौरान गोलीचालन की घटना हुई थी। लेकिन मौजूदा बीजेपी-संघ से किसी इस्तीफे की उम्मीद नहीं करनी चाहिए चाहे वह कोई यौन उत्पीड़न का आरोपी हो या कि हादसे में सैकड़ों लोगों के जान लेने का कोई जिम्मेदार मंत्री।

आखिर भारतीय रेल मंत्रालय पिछले नौ सालों में इस नियति को क्यों पहुंचा? कोई कह सकता है कि यह हादसा कुदरती है। मानवीय गलती या भूल के हवाले करके भी इससे पीछा छुड़ाया जा सकता है। लेकिन पिछले नौ सालों में रेल मंत्रालय के साथ जो प्रयोग चल रहा है उसी के भीतर इस हादसे के बीज छुपे हुए हैं। यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि देश में रेल मंत्रालय सबसे बड़े मंत्रालय के तौर पर चिन्हित किया जाता है जिसमें एक साथ 13 से चौदह लाख लोग काम करते हैं। यह संख्या कभी 15-16 लाख हुआ करती थी। लेकिन सरकार ने नयी नियुक्तियों पर एक तरह से प्रतिबंध लगा रखा है। और नियुक्तियों के नाम पर कुछ परीक्षाएं जरूर होती हैं लेकिन नियुक्तियां शायद ही समय पर हो पाती हैं। इस मंत्रालय का संसद में अपना अलग से बजट पेश किया जाता था।

सालाना उसके कामकाज से लेकर उसके भविष्य की नीतियों को बनाने और उसको लागू करने के लिए रेलवे बोर्ड से लेकर उच्चस्तरीय महकमा काम करता था। और पूरे देश की यह लाइफ लाइन यात्रियों के जीवन के साथ सुर में सुर मिलाते हुए आगे बढ़ती थी। लेकिन पीएम मोदी के आते ही पूरी तस्वीर बदल गयी। मोदी हैं तो मुमकिन है। जनाब ने आते ही रेल मंत्रालय के बजट को ही खत्म कर दिया। उसको सामान्य बजट के साथ शामिल कर उसकी अपनी विशिष्टता के साथ स्वतंत्र जरूरतों और उसको पूरा करने के तमाम उपायों का अपने इस एक फैसले  से गला घोंट दिया।

और फिर शुरू हुआ रेल को बेचने का खेल। कहीं स्टेशन नीलाम किए जा रहे हैं तो कहीं ट्रेन के रूट। कहीं प्लेटफार्म टिकट 50 रुपये का बिक रहा है तो कहीं रेलवे के किराए में दुगने की बढ़ोत्तरी। आईईआरसीटीसी के जरिये रेलवे के एक बड़े हिस्से का पहले ही निजीकरण कर दिया गया था। जनाब सब कुछ एक साथ बेच देना चाहते हैं लेकिन उन्हें ऐसा कोई ग्राहक ही नहीं मिल रहा है। क्योंकि न तो किसी पूंजीपति में यह कूवत है कि सब कुछ एक साथ खरीद ले न ही खरीदने से वह तत्काल मुनाफा हासिल कर पाएगा जिसकी उसको दरकार है। लिहाजा सरकार का रेल बेचो अभियान धीमी गति का शिकार हो गया। लेकिन इन सारी कवायदों के बीच सरकार को खुद को सबसे बेहतर भी बताना है। और यह कैसे किया जा सकता है मोदी उसके सबसे बेहतर जानकार हैं।

लिहाजा उन्होंने आते ही सबसे पहले बुलेट ट्रेन का शिगूफा छोड़ा। लेकिन जब देखा कि बुलेट ट्रेन से वह माहौल नहीं बन पा रहा है तब उन्होंने वंदे भारत ट्रेनों का देश में नया फितूर खड़ा कर दिया। और कुछ जगहों पर उन ट्रेनों को हरी झंडी दिखा कर रेलवे के कायाकल्प का पूरा श्रेय लूटने का प्रबंध कर दिया। साहेब के भाषण और गोदी मीडिया की सुर्खियों में इसकी जो स्पीड रखी गयी है वह हकीकत से बहुत दूर है। बताया गया कि इन ट्रेनों की स्पीड भी सामान्य ट्रेनों से बहुत ज्यादा नहीं है। और तमाम ताम-झाम के बावजूद यह उसी गति से चल रही है भले ही यात्रियों को इसके लिए अपनी जेबें कुछ ज्यादा ढीली करनी पड़े। अब कोई पूछ सकता है कि मोदी काल के पहले रेल बजट के दौरान नई ट्रेनों की घोषणाएं होती थीं और कई ट्रेनों का विस्तार किया जाता था। क्या मोदी काल में उतनी ही नई ट्रेनें चलायी जा सकीं हैं। क्या वंदे भारत ट्रेनों का कई जगहों से संचालन कर उसकी कमी को पूरा किया जा सकता है?

दरअसल मोदी इस बात को जानते हैं कि किसी एक चीज को इतनी बड़ी बना दी जाए कि दूसरी चीजें उसके पीछे ढंक जाएं। और इस तरह से उपलब्धियों के नाम पर उसका डंका बजा कर पूरा श्रेय लूट लिया जाए। क्योंकि सामान्य तौर पर चौतरफा प्रगति के लिए बहुत कुछ ऐसा करना होगा जिसके लिए धैर्य के साथ विजनरी योजना और समय की दरकार होगी। बहुत समय बाद उसके नतीजे आएंगे। ऐसे में किसी सरकार को उसको उस रूप में दिखा पाना मुश्किल है।जिसका वह श्रेय ले सके। लिहाजा मोदी के पास शार्टकट है। लेकिन यह शार्टकट बहुत चीजों पर भारी पड़ रहा है। मसलन अगर नियुक्तियां नहीं होंगी तो मैनपावर की कमी कई जगहों पर संकट पैदा कर देगी। और मौजूद मैनपावर के बड़े हिस्से को सरकार के मनचाहे प्रोजेक्ट में लगा दिया जाएगा तो उससे महकमे के बाकी हिस्सों को उसका नुकसान उठाना पड़ेगा।

लेकिन मोदी जी को इससे क्या लेना-देना। उन्हें तो अपने उस भाषण के लिए कुछ मैटिरियल तैयार करना है जिसमें वह कह सकें कि पिछले सत्तर सालों में रेलवे में जो होना चाहिए नहीं हो पाया लिहाजा उन्हें इस जिम्मेदारी को उठाना पड़ रहा है। अब जुमलों के इन बादशाह को कोई बता सकता है कि आपकी बुलेट ट्रेन और वंदेभारत को अगर रेल की पटरियों पर ही चलना है तो उसके लिए सबसे पहले रेलवे के इंफ्रास्ट्रक्चर का उन्नयन करना पड़ेगा। और अगर ऐसा नहीं करते हैं तो इस तरह के हादसे रेलवे की नियति बन जाएंगे। अनायास नहीं जिस 26 मई 2014 को मोदी जी ने पहली बार पीएम पद की शपथ ली थी उसी दिन एक ट्रेन हादसा हुआ था और उसमें 25 लोगों की मौत हो गयी थी। इसी तरह से 2016 में एक हादसा हुआ जिसमें 150 लोगों की मौत हो गयी। और 150 से ज्यादा लोग घायल हो गए थे।

लेकिन उससे भी मोदी साहब ने कोई सबक नहीं सीखा। और एक ऐसा रेलमंत्री ले आए जो न केवल देखने में माडर्न हो बल्कि रेलवे को बेचने के उनके सपने को मंजिल तक पहुंचाने में कामयाब हो। लिहाजा रेलमंत्री जी कवच और कुंडल जैसी तमाम टुटपुंजिया किस्म की जुमलेबाजी उछालते रहे और रेलवे को सही मायने में सुरक्षित करने और यात्रियों के लिए उसको सुविधा संपन्न बनाने की उन्हें अपनी बुनियादी जिम्मेदारी का कभी ख्याल नहीं रहा।

साभार:
(महेंद्र मिश्र जनचौक के फाउंडिंग एडिटर हैं।)

Vijay Shanker Singh सर के वाल से..

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